‘कालीधर लापता’ की आत्मा भी नहीं पता! अभिषेक की फिल्म में न प्यार, न नफरत !

‘कालीधर लापता’ आज ओटीटी प्लेटफॉर्म जी 5 पर रिलीज हो गई है। ये फिल्म साउथ की एक मूवी का रीमेक है। इसमें अभिषेक बच्चन और दैविक बघेला लीड रोल में नजर आ रहे हैं। फिल्म कैसी है जानें।

अभिषेक बच्चन की नई फिल्म ‘कालीधर लापता’ ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज़ हो चुकी है, और इसे लेकर दर्शकों की प्रतिक्रियाएं बेहद मिली-जुली हैं। फिल्म का टाइटल जितना रहस्यमयी और दिलचस्प लगता है, उतनी ही उलझी हुई है इसकी कहानी, भावनाएं और प्रस्तुति। फिल्म को लेकर जितनी उम्मीदें थीं, उसका आधा भी न्याय यह फिल्म नहीं कर पाती है। न ये फिल्म पूरी तरह थ्रिलर बन पाई, न ही इमोशनल ड्रामा — और यहीं से शुरू होती है इसकी सबसे बड़ी समस्या।

कहानी: ढूंढते-ढूंढते खो गई ‘आत्मा’

‘कालीधर लापता’ की कहानी एक रहस्यमयी गांव और वहां से एक प्रभावशाली नेता के गायब होने पर आधारित है। अभिषेक बच्चन इसमें KD यानी ‘कालीधर’ की भूमिका निभा रहे हैं, जो एक पूर्व गैंगस्टर और वर्तमान में सामाजिक कार्यकर्ता जैसा किरदार है। वह अचानक लापता हो जाता है और पूरा गांव सन्न रह जाता है। पुलिस, मीडिया, गांववाले — सब KD को ढूंढने में लग जाते हैं, लेकिन जितनी कोशिश की जाती है, उतना ही रहस्य गहराता जाता है।

पहले 30 मिनट तक फिल्म ठीक-ठाक गति से चलती है। कई परतें खुलती हैं, फ्लैशबैक आते हैं, और KD के अतीत के राज सामने आने लगते हैं। लेकिन जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है, कहानी दिशा खो देती है। नायक लापता है, लेकिन दर्शक भी आखिर में खुद को कहानी से ‘लापता’ महसूस करते हैं।

अभिषेक बच्चन की एक्टिंग: न इमोशन, न एक्सप्रेशन

अभिषेक बच्चन की एक्टिंग: न इमोशन, न एक्सप्रेशन
अभिषेक बच्चन की एक्टिंग: न इमोशन, न एक्सप्रेशन

अभिषेक बच्चन इस फिल्म में गंभीर, शांत और एक तरह से रहस्यमयी किरदार में हैं। लेकिन उनके अभिनय में वो भावनात्मक गहराई नजर नहीं आती, जो इस तरह की कहानी की मांग करती है। KD का किरदार कई स्तरों वाला है — एक अपराधी, एक रक्षक, एक पिता-सा मार्गदर्शक — लेकिन अभिषेक हर रूप में लगभग एक ही भाव में नजर आते हैं।

उनकी डायलॉग डिलीवरी ठंडी है और आंखों में न दर्द है, न ही रहस्य। दर्शक KD को समझ नहीं पाता, न ही उससे जुड़ पाता है। यही वजह है कि फिल्म खत्म होने के बाद भी दर्शक न तो KD से प्यार कर पाता है, न ही नफरत — एक तरह की उदासीनता ही रह जाती है।

निर्देशन और पटकथा: अधूरी सोच, उलझी कहानी

फिल्म के निर्देशक असीम चक्रवर्ती ने एक शानदार कांसेप्ट को हाथ में लिया था, लेकिन उसे पूरी तरह रूपांतरित नहीं कर पाए। फिल्म में कई जगह पर कथानक बेहद धीमा हो जाता है, कुछ सीन जरूरत से ज्यादा खिंचे हुए हैं, जबकि कुछ सवालों के जवाब कभी नहीं मिलते। फिल्म एक थ्रिलर बनने की कोशिश करती है, लेकिन रहस्य को अंत तक लेकर जाने के बजाय आधे रास्ते में ही थका देती है।

म्यूजिक और तकनीकी पक्ष

फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर औसत है, जो रहस्य को गहरा करने की बजाय कई बार बोझिल बना देता है। सिनेमैटोग्राफी अच्छी है और कुछ लोकेशन शॉट्स वाकई प्रभावशाली हैं। एडिटिंग बेहतर हो सकती थी, खासकर सेकंड हाफ में कई दृश्यों को छोटा किया जा सकता था।

सपोर्टिंग कास्ट

फिल्म में कुछ अच्छे कलाकार हैं जैसे नीना कुलकर्णी, विजय वर्मा और सौरभ शुक्ला। लेकिन उनके किरदार भी अधपके और सतही रह गए हैं। विशेष रूप से सौरभ शुक्ला जैसे अनुभवी कलाकार को जिस तरह से जाया किया गया है, वह खलता है।

निष्कर्ष: ‘लापता’ सिर्फ KD नहीं, पूरी फिल्म ही

‘कालीधर लापता’ एक ऐसा अनुभव है जो न पूरी तरह थ्रिल करता है, न भावुक करता है और न ही कोई संदेश देता है। यह फिल्म दर्शकों को उलझाती है, लेकिन बांध नहीं पाती। कहानी में ‘आत्मा’ की तलाश है, लेकिन वह आत्मा खुद फिल्म में ही गायब है।

रेटिंग: 2/5
अगर आप अभिषेक बच्चन के कट्टर फैन हैं या धीमी, सोचने पर मजबूर करने वाली फिल्में पसंद करते हैं, तो एक बार देख सकते हैं — वरना यह फिल्म भी जल्द ही आपकी यादों से ‘लापता’ हो जाएगी।

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