अजय देवगन की लोकप्रिय फिल्म ‘सन ऑफ सरदार’ का सीक्वल ‘सन ऑफ सरदार 2’ बड़े जोश और उम्मीदों के साथ रिलीज़ हुआ है, लेकिन यह फिल्म दर्शकों को हँसी से ज्यादा उलझन में डाल देती है। यह फिल्म ऐसी है जिसे देखकर लगता है जैसे पूरी स्क्रिप्ट संता-बंता के पुराने चुटकुलों पर आधारित है — बिना ताजगी, बिना जुड़ाव और बिना ठोस कहानी के।

कहानी का हाल
फिल्म की कहानी वहीं से आगे बढ़ती है जहाँ पहली खत्म हुई थी, लेकिन इस बार इसमें न तो दमदार दुश्मनी है, न ही कोई नई भावनात्मक परत। जसवंत सिंह रंधावा (अजय देवगन) एक बार फिर अपने पंजाबी ठाठ के साथ स्क्रीन पर लौटे हैं, लेकिन इस बार वह सिर्फ कॉमिक सिचुएशनों में फंसे नजर आते हैं। कहानी में दुश्मनी कम और बेमतलब मजाक ज्यादा है।

कुछ नए किरदारों की एंट्री हुई है, लेकिन उनके संवाद और स्क्रीनप्ले इतने कमजोर हैं कि न तो उनके दृश्य असर छोड़ते हैं, न ही हंसी पैदा करते हैं।
‘सन ऑफ सरदार’ Vs ‘सन ऑफ सरदार 2’
अगर पहली सन ऑफ सरदार एक देसी अंदाज, लोकल हास्य और भरपूर एक्शन से भरी मनोरंजक फिल्म थी तो इसका सीक्वल ‘सन ऑफ सरदार 2’ भारत-पाक नोकझोंक, बेतुके रोमांस और नाच-गाने को कला कहने वाले अजीबोगरीब संदेशों के सहारे उससे भी आगे जाने की कोशिश करता है। लेकिन सवाल यह है- क्या ये सारी कोशिशें असर छोड़ती हैं? क्या जस्सी का किरदार एक बार फिर दर्शकों का दिल जीत पाता है?

और क्या कहानी में ऐसा कुछ है जो पारिवारिक दर्शकों को थिएटर तक खींच सके? क्योंकि इन सारे सवालों को पास करते हुए ‘सन ऑफ सरदार’ आगे निकली थी। इस बार की कहानी में वो बात मिसिंग है। ये कहने में कोई गुरेज नहीं कि ‘सन ऑफ सरदार’ पूरी तरह से ‘सन ऑफ सरदार 2’ से बेहतर कोशिश थी।
कैसी है एक्टिंग?
अजय देवगन से हर बार ज्यादा की उम्मीद की जाती है। उम्मीद होती है कि कहानी भले ही कमजोर हो लेकिन उनका काम प्रभावी होगा। ठीक ऐसी उम्मीद इस बार भी थी, लेकिन इस बार फिल्म में उनका होना एक धोखा था। वो एकदम फ्लैट नजर आए। उन्हें बेबस शख्स के रूप में स्थापित किया गया है, जो उनके किरदार को न गहराई देता है न बल। उनके काम में कुछ भी नया नहीं है।
मृणाल की एंट्री तो ताबड़तोड़ गोलियों की बौछार करते हुए होती हैं, लेकिन उनका किरदार भी सतही है। उनका काम ठीक है, वो सही लैय में आगे बढ़ती हैं और जितना उन्हें मिला है, उसे सही से डिलीवर करती हैं। बात करें, दोनों की केमिस्ट्री की तो उसमें खासा तालमेल नहीं है।
रवि किशन ही फिल्म की जान हैं, भोजपुरी भाषी होते हुए भी वो पंजाबी के रोल में छा गए हैं। वो हर सीन में अच्छे लगते हैं। उनके काम में बारीकी साफ दिख रही है और ये बताती है कि वो न सिर्फ एक अच्छे एक्टर हैं, बल्कि हर बीतते दिन के साथ अपने काम को निखार रहे हैं। दिवंगत मुकुल देव को देखकर अच्छा लगता है। संजय मिश्रा जैसे अनुभवि एक्टर का सही इस्तेमाल नहीं किया गया है। वहीं विंदू दारा सिंह भी ठीक-ठाक हैं। दीपक डोब्रियाल भी आपका दिल जीतेंगे। कुब्रा सैत और रोशनी वालिया, फिल्म में सिर्फ फिलर का काम करती हैं, जबकि इनका बेहतर इस्तेमाल किया जा सकता था।
निर्देशन और तकनीकी पक्ष
निर्देशक ने फिल्म को एक हल्की-फुल्की फैमिली एंटरटेनर बनाने की कोशिश की है, लेकिन ओवरएक्टिंग, बेदम डायलॉग्स और कमजोर स्क्रीनप्ले ने इसे गिरा दिया।
सिनेमैटोग्राफी रंगीन और भव्य है, लेकिन सिर्फ सुंदर लोकेशन कहानी को नहीं बचा सकती। बैकग्राउंड स्कोर और गाने सामान्य हैं — ना खास यादगार, ना कर्णप्रिय।
चुटकुलों की बौछार, लेकिन असरदार नहीं
फिल्म में एक के बाद एक मजाकिया दृश्य आते हैं — लेकिन उनमें से अधिकांश ऐसे लगते हैं जैसे व्हाट्सएप पर भेजे गए पुराने संता-बंता के चुटकुलों को जबरन फिल्म में डाल दिया गया हो। हास्य की कोशिशें कई बार इतनी जबरन लगती हैं कि हंसी आने की बजाय सिर पकड़ने का मन करता है।
निष्कर्ष
‘सन ऑफ सरदार 2’ एक मौका था कि एक लोकप्रिय फ्रेंचाइज़ी को फिर से जिंदा किया जाए, लेकिन यह फिल्म निराश करती है। न कहानी में दम है, न संवादों में ताजगी। यह फिल्म सिर्फ उन्हीं दर्शकों को थोड़ी राहत दे सकती है, जो बेहद हल्की-फुल्की कॉमेडी से संतुष्ट हो जाते हैं।
रेटिंग: ⭐⭐☆☆☆ (2/5)
जरूर देखें अगर: आप अजय देवगन के बड़े फैन हैं और ज़्यादा उम्मीद नहीं रखते।
वरना: पुराने संता-बंता के चुटकुले पढ़ लेना ही बेहतर विकल्प होगा!
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