वार्ड पार्षदों का कहना है कि क्षेत्र के विकास कार्य के चयन का अधिकार सिर्फ वार्ड पार्षदों को सुनिश्चित किया जाए, जिस तरह विधायक और सांसद को है. मानदेय बढ़ाने की भी मांग सरकार से की है.
बिहार की राजनीति में इन दिनों नया मोड़ देखने को मिल रहा है। विधानसभा चुनाव नजदीक आते ही जहां सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही जनता को लुभाने के लिए वादों की झड़ी लगा रहे हैं, वहीं अब वार्ड पार्षदों ने भी अपनी मांगों को लेकर मोर्चा खोल दिया है। हालात ऐसे हैं कि बड़ी संख्या में वार्ड पार्षद सड़क पर उतर आए हैं और उन्होंने सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया है। यह आंदोलन सीधे तौर पर सत्ता में बैठी एनडीए सरकार के लिए सिरदर्द बनता जा रहा है, क्योंकि स्थानीय स्तर पर जनता से सबसे करीबी रिश्ता इन्हीं जनप्रतिनिधियों का होता है।

वार्ड पार्षदों की मुख्य मांग
वार्ड पार्षद लंबे समय से मानदेय बढ़ाने, कार्यक्षेत्र में वित्तीय अधिकार देने और विकास योजनाओं में सीधा हिस्सा सुनिश्चित करने की मांग कर रहे हैं। उनका कहना है कि पंचायत और नगर निकायों में विकास कार्यों का असली बोझ उन्हीं के कंधों पर होता है, लेकिन अधिकार और संसाधन सीमित हैं। कई बार जनता की समस्याओं के समाधान के लिए उन्हें हाथ-पांव बंधे हुए महसूस होते हैं। वार्ड पार्षदों का आरोप है कि वे आम लोगों के बीच सबसे नजदीकी स्तर पर काम करते हैं, लेकिन उन्हें उतना सम्मान और अधिकार नहीं दिया जाता जितना उनकी भूमिका के हिसाब से मिलना चाहिए।
आंदोलन का स्वरूप
हाल ही में पटना और अन्य जिलों में वार्ड पार्षदों ने बड़ी संख्या में प्रदर्शन किया। वे हाथों में तख्तियां और बैनर लिए सड़क पर उतरे और सरकार के खिलाफ नारे लगाए। कई जगहों पर वार्ड पार्षदों ने चेतावनी दी कि अगर उनकी मांगों को गंभीरता से नहीं सुना गया तो वे चुनावी समय पर बड़े आंदोलन की रणनीति बनाएंगे। इसका सीधा असर एनडीए की चुनावी संभावनाओं पर पड़ सकता है, क्योंकि वार्ड पार्षद स्थानीय स्तर पर जनता की नब्ज पकड़ते हैं और उनकी नाराजगी सीधे मतदाताओं को प्रभावित कर सकती है।
सरकार की मुश्किलें
बिहार की एनडीए सरकार पहले से ही महंगाई, बेरोजगारी और शिक्षा-स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियों से जूझ रही है। विपक्ष लगातार इन मुद्दों को लेकर सरकार पर हमलावर है। ऐसे में वार्ड पार्षदों का सड़क पर उतरना सरकार के लिए नई मुसीबत है। खास बात यह है कि ये वही लोग हैं जो चुनाव के समय जमीनी स्तर पर प्रचार और वोटरों को जोड़ने में अहम भूमिका निभाते हैं। यदि इन्हीं का भरोसा सरकार से उठ जाए, तो यह चुनावी समीकरण को पूरी तरह बदल सकता है।
विपक्ष का रुख
महागठबंधन के नेता इस मौके का भरपूर फायदा उठाते दिख रहे हैं। उन्होंने वार्ड पार्षदों के समर्थन में बयान दिए और सरकार को आड़े हाथों लिया। विपक्ष का कहना है कि सरकार सिर्फ बड़े वादे करती है, लेकिन स्थानीय प्रतिनिधियों को अधिकार और सम्मान देने से पीछे हट जाती है। विपक्षी दलों ने यह भी संकेत दिया कि अगर वे सत्ता में आए तो वार्ड पार्षदों की मांगों को प्राथमिकता देंगे।
राजनीतिक समीकरण पर असर
विश्लेषकों का मानना है कि बिहार में वार्ड पार्षदों का आंदोलन आने वाले चुनावों में एक बड़ा फैक्टर साबित हो सकता है। भले ही वे सीधे विधानसभा चुनाव न लड़ें, लेकिन उनका प्रभाव मतदाताओं पर गहरा होता है। यदि ये प्रतिनिधि नाराज हो जाते हैं, तो एनडीए को जमीनी स्तर पर वोट जुटाने में मुश्किल हो सकती है। दूसरी ओर, विपक्ष अगर इस मौके का सही इस्तेमाल करता है, तो वह वार्ड पार्षदों की नाराजगी को सरकार विरोधी लहर में बदल सकता है।
आगे का रास्ता
फिलहाल वार्ड पार्षदों ने सरकार को चेतावनी दी है कि अगर उनकी मांगों पर जल्द निर्णय नहीं लिया गया तो वे चरणबद्ध आंदोलन करेंगे। इसमें विधानसभा घेराव और राजधानी में बड़े पैमाने पर धरना-प्रदर्शन की भी योजना शामिल है। अब देखना यह होगा कि सरकार वार्ड पार्षदों की नाराजगी दूर करने के लिए कोई ठोस कदम उठाती है या नहीं।
निष्कर्ष
बिहार में वार्ड पार्षदों का हल्लाबोल चुनाव से पहले एनडीए सरकार के लिए बड़ी चुनौती बन गया है। स्थानीय स्तर पर जनता के बीच गहरी पकड़ रखने वाले ये प्रतिनिधि यदि विरोध में खड़े हो जाते हैं, तो सत्ता पक्ष की मुश्किलें बढ़ना तय है। यह आंदोलन न सिर्फ विकास कार्यों और अधिकारों की लड़ाई है, बल्कि आने वाले चुनावी माहौल का भी अहम संकेत है।
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